Sunday 5 January 2014

patango ka mausam

पतंगो का मौसम

लो फिर पतंगो का मौसम है आया,
छतें हुई गुलजा़र,
आसमां पे रंगीं मेला है उमड़ आया।
डरते डरते उड़ते हैं परिंदे,
परों के कटने का डर कैसा छाया,
सड़क पर भाग कर लूटते हैं पतंगे,
बच्चें, जिनके सिरों पर न है छतों का साया।
दोपहर का सन्नाटा भी बैठ गया दरख्तों पे,
काटा काटा का शोर भी क्यूँ मन को भाया।
मुलायम सी धूप में खिल ऊठा मौसम भी,
कुहाँसे की रजा़ई में दुबका था जो अलसाया।
जुड़ी जुड़ी मुंडेरों पर होती हैं जब आँख चार,
सपनों को ऊँचा करते ,ये कौन हौले से गुनगुनाया।

संगीता

Saturday 10 August 2013

Saavan aur Babul

सावन और बाबुल

नव किसलय ने झाड़ दी फिर,
बूँदों की झालर,
पात‍‍‌‌ ‍‍‌‌‌पात ने चमकाए फिर,
ध‌‌ोकर अपने आँचर,
घनद की घनघोर घटा से,
चमकती नाचती चपला बिजली,
वीर बहूटी सुना रही फिर,
आज सुरीली कजरी,
मटमैले पानी के डबरे में,
कागज की नाव में बैठा बचपन,
धुंधलाते चेहरो में,
छूट गई सखियों को, ढूंढता मन|
नन्हीं हथेलियों पे बने,
वो मेंहदी के बेलबूटे,
वो अल्हड़ कुलाँचे, श्रावणी सपने,
न जाने कहाँ छूटे|
अपने घरौंदे से निकल,
पहुँच जाता बाबुल के आँगन,
आँखों का खारापन धुल जाता,
बूँदों के झूले पे आता जब सावन|‌

Tuesday 5 February 2013


·                    खबर बसंत के आने की

 

मेरे बगीचे में डहेलिये की

कई कलियों ने आँखे खोली

और आज वे फूल बन मुस्करा पड़ीं

खबर देती बसंत के आने की

 

गमले के पीछे लकड़ी के तिनकों पर

दो दिन से बैठी कबूतरी ने

आज दो नन्हें अंडे दिऐ

निकलेंगे चूजे जब

आ जाएगा बसंत तब

 

दरवाजे पर स्थिर खड़े

नीम के पेड़ से कल तक

झरझर झड़ती थी पत्तियाँ

आज कोमल गुलाबी कोंपलो ने

चुटकी काटी है तने में

और आहट हुई बसंत के आने की

 

शबनम सी टपकती बूँदों को

जब बालों से झाड़ा मेंने

तो कोई आवारा सी हवा

उड़ा ले गई लट मेरी

और फेंक गई पाती बालकनी में मेरी

लिखा था कि आ रहा है  बसंत

हवा की सरसराहट में दुबककर हौले से

 

Wednesday 9 January 2013

yado me dhoop


यादों में धूप

यह कोमल सी धूप उतरती जब आँगन में,

यादों के पत्ते झरते चुप बैठे एकाकी मन में,

बचपन की गलियों से आती,

जब जब अल्हड़ आवाजें,

मिश्री सी मुस्कान ठहरती,

पलकों पर घूंघरू बाजे.

स्वेटर के फंदों मे उलझी,

चश्मा उपर करती माँ,

फिर फिर किस्सा वही सुनाती ,

एक पोपली दादीमाँ,

आते जाते मटर उठाते,

गजक रेवड़ी खूब चबाते,

चिंगा पों की वो आवाजे,

धूप सनी गपशप बातें,

पास, पड़ोस, गली,मोहल्ले

सब की सब बाहर आ जाते ,

हँसी, ठिठोली, दुःख,सुख बाँटे,

धूप सेंकते घुलमिल जाते

 

वो फुरसत के पल आज फिर ढूंढती हूँ,

धूप की अँगुली पकड़े अपनों का पता ढूंढती हूँ|

धूप वही है,

गर्माहट कहीं खो गई है,

साझा आँगन सिमट गया कहीं,

दीवारें ऊँची हो गई हैं|

सबकुछ बाँट लिया है हमनें,

धूप को कैसे बाँटेंगे?

चाहे जो खरीद लें अब तो

वो भोली फुरसत कहाँ पाएंगे| 

 

दिल्ली १६ दिसम्बर


शब्द थर्राते हैं, और कलम है काँपती,

क्या लिखे नारी की नियती यह समझ नहीं पाती,

तुम कितना ही दुर्लभ मानो इस मनु्ष्य जन्म को,

पर जब इसी में हो आत्मा भेड़िये की ,

तो ईश्वर भी मल रहा होगा हाथ,

कि क्यूं भेजा इन दरिंदो को पृथ्वी पर,

लगा दिया जिन्होनें मानवता पर एसा दाग.

नृशंसता की पराकाष्ठा ओर वीभत्सता का ताँडव,

कलयुग का चरम समय,

संवेदनाओं का वन यह खांडव.

मिटा दिया करुणा का अस्तित्व धरा से,

जीवित हो फिर भी कैसी बेहया से,

थूक रही सभ्यता तुम पर,

और धिक्कार रही उस माँ की कोख,

जिसने तुम को यह चोला पहनाया,

दुष्कर्म एसा करने से पहले ,

क्या माँ का चेहरा भी याद नहीं आया|